June 30, 2010

शाम के अंधेरों से क्या डरे

First Posted: 30 Jun, 2010 / Edited: 01 Jul, 2010

आगे बढ़ने के मौके कम मिले
मौकों पे हम बढ़ते कम मिले

कश्तियाँ रेत घिसती रह गयीं
पतवार उठाते बाज़ू कम मिले

कुछ चेहरों में नूर होता है
मेरे माथे पे तारे कम मिले

हमारी बेवफाई गिनी न गयी
हमे वफादार महबूब कम मिले

शाम के अंधेरों से क्या डरे
जिसे दिन में उजाले कम मिले