March 23, 2016

खिले फूलों को रोते हुए किसी ने न देखा

रंग और खुशबू से परे किसी ने न देखा
खिले फूलों को रोते हुए किसी ने न देखा

अपने आसपास की रौशनी में यूँ मगन
दूर के गहरे अँधेरे को किसी ने न देखा

मैंने कह दिया खरीदने निकला हूँ पूरा बाज़ार
मेरी जेब में चंद सिक्के हैं किसी ने न देखा

हमे ग़ुलाम-ए-हुस्न कहा तो क्या गलत कहा
उनकी नाफरमानी करते हमे किसी ने न देखा

आशिक़ की मज़ार पे शराबी रुक जाते हैं कभी
बड़े दिनों से उसे मयखाने में किसी ने न देखा

गैरों से उसे पूरा करने ही उम्मीद कैसे करूँ
जो मेरा ख़्वाब है वो और किसी ने न देखा

हम पिछले महीने की कहा-सुनी पर खफा हैं
वक़्त बरसों आगे बढ़ गया किसी ने न देखा 

लौट आये

वक़्त की फितरत ऐसी बीते फिर न लौट आये
अपने पुराने लौट आएं तो वक़्त पुराना लौट आये

एक मुसाफिर सुबह की धुन में घर भुलाये बढ़ा चले
एक मुसाफिर सुबह का भूला शाम हुए घर लौट आये

इज़हार-ए-मोहब्बत का खत भेज तो दें पर डरते हैं
हाल हमारा क्या होगा जो जवाब उनका लौट आये

अगर धर्म ज़ात देख कर मोहब्बत की तो सौदा किया
इश्क़ के ऐसे बाज़ार से हम खली हाथ ही लौट आये

जब तन्हा थे तो महफ़िलों को तरसते थे और अब
दोस्तों ने बुलावा भेजा और हम घर को लौट आये