काफ़िर यूँ भी सोचता है कभी कभी
क्या हर्ज़ जो मस्जिद चलें कभी कभी
यूँ तो बेसुध होने आते हैं तेरे दर साकी
कर रहम शराब पानी हो जाये कभी कभी
सपने पिघल जाते हैं हलकी सी धुप में
सूरज देखे जो ख्वाब तो कैसे कभी कभी
शाखें मेज़ बन गयीं और पत्तियां किताबें
मौसम के हारों को पढ़ के देखो कभी कभी
सड़कों को मेरा वज़न क्या महसूस होगा
हम इन्ही की बाहों में गिरे हैं कभी कभी
जो रात के अंधेरों में छुप कर लिखे
उन शेरों को महफ़िल में पढो कभी कभी
कर रहम शराब पानी हो जाये कभी कभी
सपने पिघल जाते हैं हलकी सी धुप में
सूरज देखे जो ख्वाब तो कैसे कभी कभी
शाखें मेज़ बन गयीं और पत्तियां किताबें
मौसम के हारों को पढ़ के देखो कभी कभी
सड़कों को मेरा वज़न क्या महसूस होगा
हम इन्ही की बाहों में गिरे हैं कभी कभी
जो रात के अंधेरों में छुप कर लिखे
उन शेरों को महफ़िल में पढो कभी कभी