July 20, 2009

मुसाफिरों ने महकते हुए चमन देखे हैं

मुसाफिरों ने महकते हुए चमन देखे हैं
वतन की याद में कई वतन देखे हैं

साकी की हर चाल पे दुगने दाव लगे
शेहेंशाह औ' फ़कीर दोनों मगन देखे हैं

है शुक्र की न देखा ये सड़ता समाज
इन्क़लाबी आँखों ने बस कफ़न देखे हैं

गुफ्तगू का हुनर मुझमे नहीं तो क्या
मैंने अरमानो से सुलगते बदन देखे हैं

राम रटन की धुन भूले वैरागी जोगी
मंदिर की सीढी पर मृग नयन देखे हैं

July 08, 2009

खरीदा है

उमीदों के उधार पर ख्वाबों को खरीदा है
मजबूरियों की एवज़ में वादों को खरीदा है

हरे जंगलों को काट कर बसाए शेहर
कुछ बागीचे बनाकर बहार को खरीदा है

जो वक़्त पर आते काम वो चले गए
अब साथ जाम उठाने को दोस्त खरीदा है

इज़हार-ऐ-मोहब्बत का सलीका न था
हाल-ऐ-बयान को दीवाने-ऐ-ग़ालिब खरीदा है

न हासिल हुआ जो नाम पेड़ पर कुरेदा था
अब हैसियात है तो वो पूरा जंगल खरीदा है

July 05, 2009

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल

Rewriting one of my previous posts सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल into a ghazal. The poem was little experimental in style. Venus Kesari had commented (very rightly so) that I'd have been better off not writing the complete verse in मतला .

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल
मौसम फिर बेरंग जाता रहा ऐ दिल

क़दमों को गिनकर सफर क्या कम होगा
वो तो बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

पुरानी हवेली की गिरती दीवारों के पीछे
पंछी नया घोसला बुनता रहा ऐ दिल

मौसमी वादों को निभाना तो चाहा बहुत
पर मौसम था की बदलता रहा ऐ दिल

दिन वो भी थे हौसला साथ रहता था
अब टूट गए, वक्त रोंद्ता रहा ऐ दिल

वो डरा हुआ लड़का सीधे चलता रहा
मैं जेब मे बटुआ ढूँढता रहा ऐ दिल

July 03, 2009

प्यार को परिभाषित करने की कोशिश बेकार

Some thoughts cropped up when I read about the historic ruling by the Delhi High Court yesterday that legalised homosexuality in India. I think anything that reinforces equality and promotes love is always welcome, more so in the troubled times that we live in. Shaped the thoughts into a ghazal. Hope you like it.

प्यार को परिभाषित करने की कोशिश बेकार
स्वरुप व अभिव्यक्ति पर बाटने की कोशिश बेकार

नंगे जिस्म से शर्माती है नंगी सोच
तस्वीरों को चुनर से ढकने की साजिश बेकार

मौसम की बहार सभी फूलों से है
बस गुलाब के बागीचे बनाने की कोशिश बेकार

हर दिन दे रहा कोई सड़क पे धरना
इन सड़कों से मंजिल पाने की कोशिश बेकार

मेरे पहनावे और सोच से तकलीफ तुमको
पर मेरे ख्वाबों पे गुंडाराज की कोशिश बेकार

July 01, 2009

चेहरे

सरहदों पर दोस्ती को तरसते चेहरे
बंदूकों की नाल से बरसते चेहरे

भीड़ बीच में फसा आदमी ये क्या जाने
ले जाए उसको खींच कहाँ भटकते चेहरे

पतझड़ मे बागीचा सारा सूख गया है
बचे धूल मे दौड़ लगाते हँसते चेहरे

जब सुनाई इंकिलाब की आंखों देखी
दिलासे हलके, भारी पड़े तड़पते चेहरे

अजायबघर में भीड़ जुटाती ये शमशीर
झांके उससे बीते युग के गिरते चेहरे