November 03, 2009

तुम बहुत अज़ीज़

तुम बहुत अज़ीज़ हो मुझे मगर
मेरी तकदीर के हिस्सेदार नहीं
बस साथ चलो हाथ पकड़कर
दिखाओ दोराहों पर दिशा नहीं

तुम लेना चाहते हो मेरे गम
और देना चाहते हो अपनी खुशियाँ
अगर ये सौदा हो सकता
दोस्तों की ज़रुरत पड़ती नहीं

तुम्हारी खुशियों पर चुप
तुम्हारी तकलीफ मे मौन
मेरी बेरुखी नहीं है दोस्त
मैं ज्यादा ज़ाहिर करता नहीं

इस मौसम बीमार पड़े हम
पिछले मौसम नासाज़ रहे तुम
तुम्हे जो दावा असर कर गयी
वो इस मौसम हमे लगी नहीं

October 13, 2009

Global Film Festival at Indore - III

13 Oct

1. Woman Next Door (Dir: Francois Truffuat, France) - Truffuat is credited with kick-starting the New Wave in French cinema. 'Woman Next Door' is a fairly regarded film of his. It is, I think, only as complex as one wishes to view it as. A lot is left to the extrapolation of the viewer. Truffuat, it is apparent, is not much bothered about the form (i.e. the camera angles or lighting, etc) but is more interested in content. As a result, obviously, there is not much visual appeal. I'm not the right audience for Truffuat, I guess.

2. Sivaji (Dir: Shankar, India/Tamil) - Well, what can I say. I still remember the hysteria this film generated during its release. I finally got to see it in full. I have always felt that Rajnikant is very entertaining in comic sequences. Same here but rest of the film is strictly for his fans.

October 12, 2009

Global Film Festival at Indore - II

12 Oct


Camera Buff (Dir: Krzysztof Kieslowski, Poland) - An important work from the Polish director. Very different style and treatment. He works hard to make everthing look ordinary, even amatuer. So are his actors; it is like we peep at them going through their lives. The last 15-20 minutes, however, attempt to arrive at something formally conclusive, which seemed in contrast to simplistic flow of the rest of the film. A good film.

Global Film Festival at Indore - I

Indore is hosting a Global Film Festival which started 2 days back on 9 Oct and will continue till 14 Oct. Following are the films I got to see so far and a few lines about what I thought of them.

9 Oct


1. Chaudvi ka Chand (Dir: Guru Dutt, India) - A Guru Dutt classic. Very beliveable coincidences in the story and fine performances from the complete cast. But was a bit too musical from me (too many songs that is) and add to it the fact that the music score by Ravi is ordinary, exception being the superb title track (which incidentally is the only portion of the film shot in color).

10 Oct


1. Tess (Dir: Roman Polaski, UK) - The camera captures brilliant landscapes of the English country side. Ace photography. The lead actress looks stunning in every frame. It is easy to see why men fall for her in the story. It chronicles the struggles of a woman. Though this is the only Polaski film I have seen, going by his reputation, I guess this is not amongst his best.

2. Murder (Dir: Alfred Hitchcock, UK) - Not the best works of Hitchcock. Mildly entertaining.

3. Wild Strawberries (Dir: Ingmar Bergman, Sweden) - The strange ways in which Bergman films grip his audience can only be felt. So many devices are in play in Wild Strawberries - flashbacks, dreams, locations, sets and the characters. Totally engrossing and a definite masterpiece.

4. Madadayo (Dir: Akira Kurosawa, Japan) - The influence of Kurosawa on world cinema is immense and need not be pointed out. Madadayo is his last film. I don't know if it was intentional of him to tell the story of an amiable old man. The film is a bit too long but otherwise is very entertaining, funny and simple. Fantastic performance by the lead actor. He bring alive the character so well that you believe it completely.

PICK OF THE DAY: Wild Strawberries.

I plan to catch some more films during the festival.

September 08, 2009

चंद शेर

कुछ शेर प्रस्तुत हैं। उम्मीद है पसंद आयेंगे।

आज किताबों में सहेज के रखते हैं सूखे हुए फूल
जो कभी बागीचों मे कलियाँ रोंधकर गुज़र जाते थे
***
जब हाथ काँपने लगे जाम उठाते तो रुक जाता हूँ
मयखाने के बाहर हमप्याला बेईमान हो जाते हैं
***
पहाडों में गुज़रे कुछ दिन तो वंही रह जाने को मन किया
मैदानों में पता ही नहीं चलता सूरज कंहा डूब जाता है
***
मौसम की बाजीगरी ये की मिजाज़, माहौल सब बदल दे
हम अपनी तसल्ली को घरोंदों में बसेरा कर लेते हैं
***

August 21, 2009

बाग़ फिर भी खुशबू से भरा है

वक़्त ने ही ज़ख्मों से भरा है
वक़्त ने ही ज़ख्मों को भरा है

फूलों की पहचान न हो सकी
बाग़ फिर भी खुशबू से भरा है

ज़रा प्यार से टटोल कर देखो
मेरा दिल मोहब्बत से भरा है

कल रात घर से भागे दो आशिक
सुबह मोहल्ला नफरत से भरा है

नशे की हालत में उम्मीद जगी
मयखाना दोस्तों से भरा है

कभी मंदिर में सुकून मिलता था
अब वो रास्ता डर से भरा है

August 02, 2009

ज़िन्दगी मिलेगी

फैसलों और अंजाम से बुनी ज़िन्दगी मिलेगी
घने अंधेरों मे जगमगाती ज़िन्दगी मिलेगी

तमाम ज़िन्दगी एक पांव करते रहे तप जोगी
इस उम्मीद में की वरदान में ज़िन्दगी मिलेगी

क़यामत के उस पार सजी महफिल उनकी
अब क़यामत के उस पार ही ज़िन्दगी मिलेगी

खुशियाँ वफादार हैं लौटकर वापस आएँगी
इनको जितना बांटो उतनी ज़िन्दगी मिलेगी

मुश्किलों से डर कर भागना आदत हो गयी
यूँ ही भागते हुए शायद कंही ज़िन्दगी मिलेगी

July 20, 2009

मुसाफिरों ने महकते हुए चमन देखे हैं

मुसाफिरों ने महकते हुए चमन देखे हैं
वतन की याद में कई वतन देखे हैं

साकी की हर चाल पे दुगने दाव लगे
शेहेंशाह औ' फ़कीर दोनों मगन देखे हैं

है शुक्र की न देखा ये सड़ता समाज
इन्क़लाबी आँखों ने बस कफ़न देखे हैं

गुफ्तगू का हुनर मुझमे नहीं तो क्या
मैंने अरमानो से सुलगते बदन देखे हैं

राम रटन की धुन भूले वैरागी जोगी
मंदिर की सीढी पर मृग नयन देखे हैं

July 08, 2009

खरीदा है

उमीदों के उधार पर ख्वाबों को खरीदा है
मजबूरियों की एवज़ में वादों को खरीदा है

हरे जंगलों को काट कर बसाए शेहर
कुछ बागीचे बनाकर बहार को खरीदा है

जो वक़्त पर आते काम वो चले गए
अब साथ जाम उठाने को दोस्त खरीदा है

इज़हार-ऐ-मोहब्बत का सलीका न था
हाल-ऐ-बयान को दीवाने-ऐ-ग़ालिब खरीदा है

न हासिल हुआ जो नाम पेड़ पर कुरेदा था
अब हैसियात है तो वो पूरा जंगल खरीदा है

July 05, 2009

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल

Rewriting one of my previous posts सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल into a ghazal. The poem was little experimental in style. Venus Kesari had commented (very rightly so) that I'd have been better off not writing the complete verse in मतला .

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल
मौसम फिर बेरंग जाता रहा ऐ दिल

क़दमों को गिनकर सफर क्या कम होगा
वो तो बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

पुरानी हवेली की गिरती दीवारों के पीछे
पंछी नया घोसला बुनता रहा ऐ दिल

मौसमी वादों को निभाना तो चाहा बहुत
पर मौसम था की बदलता रहा ऐ दिल

दिन वो भी थे हौसला साथ रहता था
अब टूट गए, वक्त रोंद्ता रहा ऐ दिल

वो डरा हुआ लड़का सीधे चलता रहा
मैं जेब मे बटुआ ढूँढता रहा ऐ दिल

July 03, 2009

प्यार को परिभाषित करने की कोशिश बेकार

Some thoughts cropped up when I read about the historic ruling by the Delhi High Court yesterday that legalised homosexuality in India. I think anything that reinforces equality and promotes love is always welcome, more so in the troubled times that we live in. Shaped the thoughts into a ghazal. Hope you like it.

प्यार को परिभाषित करने की कोशिश बेकार
स्वरुप व अभिव्यक्ति पर बाटने की कोशिश बेकार

नंगे जिस्म से शर्माती है नंगी सोच
तस्वीरों को चुनर से ढकने की साजिश बेकार

मौसम की बहार सभी फूलों से है
बस गुलाब के बागीचे बनाने की कोशिश बेकार

हर दिन दे रहा कोई सड़क पे धरना
इन सड़कों से मंजिल पाने की कोशिश बेकार

मेरे पहनावे और सोच से तकलीफ तुमको
पर मेरे ख्वाबों पे गुंडाराज की कोशिश बेकार

July 01, 2009

चेहरे

सरहदों पर दोस्ती को तरसते चेहरे
बंदूकों की नाल से बरसते चेहरे

भीड़ बीच में फसा आदमी ये क्या जाने
ले जाए उसको खींच कहाँ भटकते चेहरे

पतझड़ मे बागीचा सारा सूख गया है
बचे धूल मे दौड़ लगाते हँसते चेहरे

जब सुनाई इंकिलाब की आंखों देखी
दिलासे हलके, भारी पड़े तड़पते चेहरे

अजायबघर में भीड़ जुटाती ये शमशीर
झांके उससे बीते युग के गिरते चेहरे

June 29, 2009

वृंदा का श्रृंगार

शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

ढलता सूरज जैसे उठकर
माथे पर आ बैठा हो
यूँ बिंदिया सजाती है
पसीने के मोतियों का ताज
बिना बगावत देती है उतार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

झरने का पानी ज्यों टूटे
तार-तार बहते दिन भर
यूँ केश घने सुलझाती है
उनमे बांधे फूलों की वेणी
ओढ़ लेती मौसम की बहार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

जैसे महीनों धूप देखो
फिर भी न भूले रंग हरा
यूँ ही प्रिय का कोमल स्पर्श
ठहरा जीवंत कटिबंध में
उससे कमर देती है सवांर
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

June 23, 2009

इसे अपनी वसीयत किए जाते हैं

न जाने किस उम्मीद पे इन्तिज़ार किए जाते हैं
जो शाम ख़त्म हो तो सुबह तक जिए जाते हैं

ये मोतियों का हार विरासत में मिला है मुझे
चंद गज़लें और इसे अपनी वसीयत किए जाते हैं

गुनाहों का होगा हिसाब तो कहाँ छिपेंगे जाकर
इस डर से खुदा को हर रात सफाई दिए जाते हैं

आशिकी का आलम ये की शराब भी बेअसर
मयखाने में जोगी बस उनका नाम लिए जाते हैं

मोर नाचने लगे बन में तो सावन की आस जगी
अब बेफिक्री से पानी के और घूँट पिए जाते हैं

क्या करोगे जानकर

मुक्कदर से लड़ने का जोश मुझमे भी था
फिर जाना की वक्त भी हथियार रखता है
अंजाम-ऐ-ज़ंग क्या हुआ, क्या करोगे जानकर

बोता हर किसान अपनी फसल अरमानों से है
फिर मौसम भी होता है, पानी और पसीना भी
किस खेत में क्या फला, क्या करोगे जानकर

उनके जिस्म का हर मोड़ जानती हैं ये उंगलियाँ
उनकी खुशबू से भरपूर अब भी हैं ये उंगलियाँ
किसने किसको कहाँ छुआ, क्या करोगे जानकर

मौसम का मिजाज़ बदलते देर नही लगती
कितने बादल परछाई दिखा कर उड़ जाते हैं
वो फिर जाकर कहाँ बरसे, क्या करोगे जानकर

June 12, 2009

मौसम का इंतिज़ार क्यों करें

मौसम का इंतिज़ार क्यों करें
छिप-छिप के प्यार क्यों करें

मिलो किसी बहाने बागीचे में
बस ख़्वाबों में दीदार क्यों करें

इस गली से गुज़रे आशिक कई
इसे नफरत से बीमार क्यों करें

धूल पे लिखा-मिटाया बहुत कुछ
इसे सींच के गुलज़ार क्यों करें

उनकी बेवाफी से हमारे चर्चे हैं
उन्हें भूलकर वफादार क्यों करें

June 05, 2009

पुराने मिले

[First posted: June 5, 09.
Edited: June 6, 09.]

सालों बाद लौटा, यार पुराने मिले
जेब से गिरे कंचे पुराने मिले

दास्ताँ-ऐ-लैला-मजनू सूनाते जोगी
लतीफे कसते बच्चे पुराने मिले

देहलीज़ पे शौहर का रस्ता देखती
चूनर के रंग कच्चे पुराने मिले

study में रखा है दीवान-ऐ-गालिब
पन्नो मे दबे मिसरे पुराने मिले


June 03, 2009

सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल
मौसम फिर से बेरंग जाता रहा ऐ दिल

क़दमों को बढाकर गिनता रहा ऐ दिल
सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

साहिब मकान ऊँचा करता रहा ऐ दिल
पंछी पेड़ पर घोसला बुनता रहा ऐ दिल

हर मौसम नया वादा करता रहा ऐ दिल
क्या करे जो मौसम बदलता रहा ऐ दिल

दिन वो भी थे हौसला साथ रहा ऐ दिल
अब टूट गए, वक्त रोंद्ता रहा ऐ दिल

वो डरा हुआ लड़का चलता रहा ऐ दिल
मैं जेब मे बटुआ ढूँढता रहा ऐ दिल

May 22, 2009

आँगन में लगा आम का पेड़ हरा है

मकान की दीवारें बेरंग हैं तो क्या
आँगन में लगा आम का पेड़ हरा है

एक चम्मच शक्कर गिरी मेज़ पर
उस तरफ़ चीटियों का कारवां चला है

मुमकिन ये भी है की वो बेवफा न हो
यही सोच आशिक दुनिया से चला है

पतझड़ मे फूल मुरझा गए तो क्या
ये चमन अब भी उम्मीदों से भरा है

सरकारें बाट रही हैं मुफ्त मे रोटियां
मजदूरों के औजारों में क्या धरा है

अकेला था तो चाहा कोई हाथ थाम ले
अब मेले में नयन-नक्श जांच रहा है

शहर की सड़कें

शहर की सड़कों पर
नियम से चलने का
अब फैशन न रहा

उपमा से उठकर
अब यथार्थ मे हैं
संघर्ष का मैदान
उन पर निश्चिंत हो,
गुनगुनाते चलने का
आराम न रहा

न जाने कितनो के
प्राण ले चुकीं ये
सड़क हो गई जैसे
रक्तरंजित रणभूमि
यहाँ मरते को देख
रुकने का समय न रहा

जानवरों, पंछियों को भी
अपने हमसफ़र से
यूँ विमुख, बेपरवाह
चलते, उड़ते नही देखा
रेखाओं से बंटी सड़क पे
दोस्ती का लेन न रहा

May 19, 2009

ख़्वाबों पे हक किसका है?

बोलो, खुशबु पे हक किसका है?
फूलों का, हवाओं या माली का?
जुल्फों मे सजा मोगरा क्या जाने

बोलो, ख़्वाबों पे हक किसका है?
रातों का, उम्मीदों या अपनों का?
बाहों मे लिपटा बदन क्या जाने

वीरान सड़कों पे हक किसका है?
हिन्दुओं, मुसलमानों, इसाईयों का?
दंगों मे उजडे जो घर, क्या जाने

अन्तिम साँसों पे हक किसका है?
संतोष का, थकान या मुक्ति का?
तिजोरी को तकते बेटे क्या जाने

May 18, 2009

ये ज़िन्दगी है, ख्वाब नही

ये ज़िन्दगी है, ख्वाब नही,
सुबह इसे कुछ और जीना पड़ेगा

मील के पत्थर अभी चुप हैं
राही को कुछ और भटकना पड़ेगा

मैं उनकी जुल्फों के गिरफ्त में हूँ
इनसे निकलूँ तो फिर सवेरा पड़ेगा

सफर ख़त्म हुआ तो मन उदास है
फिर किसी नई डगर चलना पड़ेगा

April 26, 2009

यादों की मुट्टी खोलो

मुझे भूलना बहुत आसान है
कोशिश कर के देखो ज़रा
जज़्बात वक्त का मेहमान है

पिंजडा खोलो, पंछी उड़ जाएगा
जब यादों की मुट्टी खोलोगी
मेरा हर निशान मिट जाएगा

न सोचो क्या होगा बिन मेरे
तुम सावन, पथझड बसेरा मेरा
सोचो क्या होगा संग मेरे

आयेंगे हसीं मोड़ रस्ते में कई
ख्वाबों में जियोगी यूँ ही कब तक
साथ देंगे तुम्हारा हमसफ़र कई

मान लो एक दौर था जो गुज़र गया
रास्ता भटक आ पहुँचा था तेरे द्वार
मोसम था एक, जो अब बदल गया

April 19, 2009

क्या करे?

दोपहर की गर्मी मे
यूँ ही अकेला मन, क्या करे?

अलसाई सी सोच, थकी सी,
नींद को न छोड़ती पलकें,
पसीने से तर बदन
बिना कुछ किए, क्या करे?

नमी को तरसते होठ, प्यासे
बे-इन्तेहाँ रौशनी से घिरा
वीरानों का अन्धेरा
बसना चाहे तो क्या करे?

शब्दों की लडियां,
गर न बने कविता, क्या करे?

April 14, 2009

मौसम बदल सा गया

तुमने जो छुआ, उमीदों ने छु लिया
महक उठा बदन, रंग गए ख्वाब
ख्यालों ने कविता का रूप ले लिया

मौसम बदल सा गया जो तुमने
छेडा एक गीत भूला सा, जैसे
हवाओं ने खोया सुर पहचान लिया

की यूँ भी होता है एक शक्स के
जीवन में आ जाने से किसी के
इस बात को आज जान लिया

March 22, 2009

कोयल डाल पर मौसम ढूंढती है

शायद इन ही रास्तों पे मिलेंगे वो
ये सोच कर टहलता हूँ हर शाम
कोयल डाल पर मौसम ढूंढती है

वो मिलते भी हैं तो घड़ी दो घड़ी
उस वक्त उनसे शिकवा क्या करें
ख्वाब है, आखें मूँद लें की खोल दें

कई दिन हुए मुझे ख़ुद से मिले हुए
आज शाम क्यों न चलें दोनों सैर पर
आईने से पूछो वो कितना अकेला है

अब मेरा ख्याल भी नागवार उन्हें
कभी पूरी रात बहुत छोटी लगती थी
आज शबनम से मैला हो रहा फूल है

परछाइयों के अंधेरे मे खो जाओगे

परछाइयों के अंधेरे मे खो जाओगे
भीड़ भरे रास्तों पर सर उठा के चलो

आईने मे चाँद मिल भी जाए तो क्या
कभी बाहर चांदनी की छाओं में चलो

वो खड़ा है उस तरफ़ अकेला, गुमसुम
थोड़ा मुस्कुराओ और उसकी ओर चलो

ये बारिश नही रुकेगी आज की शाम
मौसम में एक बार तो भीगते चलो

आज की शाम न दोस्त हैं, न साथी
आज मयखाने अकेले ही चलो

March 15, 2009

Tide of Time

The sweeping tide of time
carries in its belly
so many joys, so many sorrows.

I want to hold on to things
against this tide, beyond my power.
So many moments, so many memories

Of the so many firsts -
bicycle, love, job - sweeps all.
So many fortunes, so many failures

And those who are me now
my family, and friends, and hopes;
so many faces, so many dreams

हमसफ़र

यूँ खामोश न रहो
मैं सुनूंगा तुम्हारी बातें
मुझ से कहो
न छुपाओ मुझसे अपने आंसू
बहने दूँगा मैं उन्हें
नही रोकूंगा ये सैलाब
नही करूँगा कोशिश
सहलाने की तुम्हारे ज़ख्मों को
उन्हें वक्त लगेगा
मैं तो बस तुम्हारा हमसफ़र हूँ
साथ चलूँगा
और जब हवाएं ज्यादा सर्द हो जाएँगी
तुम्हे अपनी शाल ओढा दूंगा

March 11, 2009

इस होली

इस होली कुछ ऐसा रंगो सखी
सारा सूनापन गुलाल हो जाए
मेरी आखों से जो गिरे पानी
तेरे होटों पर, लाल हो जाए

छेडो कोई ऐसा राग सखी
दिल के कोने तक जो पहुंचे
बस नाम ही लूँ मैं तुम्हारा
और हवाओं मे संगीत भर जाए

ये गुलाल है मेरे गालों पर सखी
या छूट गई तुम्हारी उंगलियाँ
अब की होली रंगो कुछ ऐसा सखी
मैं ही तुम, तुम ही रंग हो जाए

March 08, 2009

सफर

[Incomplete version posted on: 8 March, 09
Completed the poem on: 5 July, 09]

सफर पे जो निकल पड़ा हूँ
देखें रास्ते कहाँ ले जाते हैं
मैं चलता हूँ इन पर या फिर
ये मुझ पर चल कर जाते हैं

मैं चुन रहा हूँ रास्तों को
या रास्ते चुन रहे हैं मुझे
जवाबों की खोज में निकलूँ
तो सवाल घेर लेते हैं मुझे

रास्तों को नहीं कोई लगाव
उन पर चलते मुसाफिरों से
बस उतनी ही आसक्ति उनको
जितनी कदमों को पत्थरों से

मिलते हैं जो हमसफ़र
वो मुस्कुराकर चले जाते हैं
सफर पे जो निकल पड़ा हूँ
देखें रास्ते कहाँ ले जाते हैं

March 01, 2009

Asleep - Awake

[Copied over from my old blog storyteller.blogspirit.com]

I see myself sleep, careless, blank.

I see that dream leaving me.

It took me to places I won't remember.

I see my hand stretching out, trying to hold the dream back,

then it falls down to pull the sheet over.

I see the morning sun measuring my window.

Light slits my eyes, entering me to enlighten me.

I see myself wake up. And, then I go to sleep.

मौसम के साथ खिले कुछ फूल

[Copied over from my old blog storyteller.blogspirit.com]

मौसम के साथ खिले कुछ फूल
दरख्त की जड़ों पुर लग चुकी दीमक
शाख को क्या मालूम

तलवारों ने पहनी शौर्य की धार
आधी तनख्वा पे बिके सेनापति
सैनिकों को क्या मालूम

श्रद्धा से झुकाया मन्दिर मे सर
लालच और ज़हर से सना हुआ दिल
दुआओं को क्या मालूम

जब होते हैं वो बस उन्हें देखते हैं
उनकी याद फिर मे तुम्हे देखते हैं
उनको क्या मालूम, तुमको क्या मालूम

ज़िन्दगी गुज़र जाती है, हम देखते रह जाते हैं

दिन कई हाथों से यूँ ही फिसल जाते हैं
ज़िन्दगी गुज़र जाती है, हम देखते रह जाते हैं


जिन लम्हों को ढूंढता हूँ मैं, जाने कहाँ हैं
उन्हें ढूँढने मे कई और दिन निकल जाते हैं


बचपन मे सुनी कहानियो को भूलना ही ठीक
जवानी मे परियों को ढूँढ दीवाने हुए जाते हैं


कुछ ज्यादा ही खुश मिजाज़ है आज मेरा यार
उनकी खुशी मे हम भी खुश हुए जाते हैं