June 29, 2009

वृंदा का श्रृंगार

शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

ढलता सूरज जैसे उठकर
माथे पर आ बैठा हो
यूँ बिंदिया सजाती है
पसीने के मोतियों का ताज
बिना बगावत देती है उतार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

झरने का पानी ज्यों टूटे
तार-तार बहते दिन भर
यूँ केश घने सुलझाती है
उनमे बांधे फूलों की वेणी
ओढ़ लेती मौसम की बहार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

जैसे महीनों धूप देखो
फिर भी न भूले रंग हरा
यूँ ही प्रिय का कोमल स्पर्श
ठहरा जीवंत कटिबंध में
उससे कमर देती है सवांर
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार

June 23, 2009

इसे अपनी वसीयत किए जाते हैं

न जाने किस उम्मीद पे इन्तिज़ार किए जाते हैं
जो शाम ख़त्म हो तो सुबह तक जिए जाते हैं

ये मोतियों का हार विरासत में मिला है मुझे
चंद गज़लें और इसे अपनी वसीयत किए जाते हैं

गुनाहों का होगा हिसाब तो कहाँ छिपेंगे जाकर
इस डर से खुदा को हर रात सफाई दिए जाते हैं

आशिकी का आलम ये की शराब भी बेअसर
मयखाने में जोगी बस उनका नाम लिए जाते हैं

मोर नाचने लगे बन में तो सावन की आस जगी
अब बेफिक्री से पानी के और घूँट पिए जाते हैं

क्या करोगे जानकर

मुक्कदर से लड़ने का जोश मुझमे भी था
फिर जाना की वक्त भी हथियार रखता है
अंजाम-ऐ-ज़ंग क्या हुआ, क्या करोगे जानकर

बोता हर किसान अपनी फसल अरमानों से है
फिर मौसम भी होता है, पानी और पसीना भी
किस खेत में क्या फला, क्या करोगे जानकर

उनके जिस्म का हर मोड़ जानती हैं ये उंगलियाँ
उनकी खुशबू से भरपूर अब भी हैं ये उंगलियाँ
किसने किसको कहाँ छुआ, क्या करोगे जानकर

मौसम का मिजाज़ बदलते देर नही लगती
कितने बादल परछाई दिखा कर उड़ जाते हैं
वो फिर जाकर कहाँ बरसे, क्या करोगे जानकर

June 12, 2009

मौसम का इंतिज़ार क्यों करें

मौसम का इंतिज़ार क्यों करें
छिप-छिप के प्यार क्यों करें

मिलो किसी बहाने बागीचे में
बस ख़्वाबों में दीदार क्यों करें

इस गली से गुज़रे आशिक कई
इसे नफरत से बीमार क्यों करें

धूल पे लिखा-मिटाया बहुत कुछ
इसे सींच के गुलज़ार क्यों करें

उनकी बेवाफी से हमारे चर्चे हैं
उन्हें भूलकर वफादार क्यों करें

June 05, 2009

पुराने मिले

[First posted: June 5, 09.
Edited: June 6, 09.]

सालों बाद लौटा, यार पुराने मिले
जेब से गिरे कंचे पुराने मिले

दास्ताँ-ऐ-लैला-मजनू सूनाते जोगी
लतीफे कसते बच्चे पुराने मिले

देहलीज़ पे शौहर का रस्ता देखती
चूनर के रंग कच्चे पुराने मिले

study में रखा है दीवान-ऐ-गालिब
पन्नो मे दबे मिसरे पुराने मिले


June 03, 2009

सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल
मौसम फिर से बेरंग जाता रहा ऐ दिल

क़दमों को बढाकर गिनता रहा ऐ दिल
सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल

साहिब मकान ऊँचा करता रहा ऐ दिल
पंछी पेड़ पर घोसला बुनता रहा ऐ दिल

हर मौसम नया वादा करता रहा ऐ दिल
क्या करे जो मौसम बदलता रहा ऐ दिल

दिन वो भी थे हौसला साथ रहा ऐ दिल
अब टूट गए, वक्त रोंद्ता रहा ऐ दिल

वो डरा हुआ लड़का चलता रहा ऐ दिल
मैं जेब मे बटुआ ढूँढता रहा ऐ दिल