December 28, 2010

रात बर्फ का कालीन बिछा गयी

पलकों पर रखे इतने ख्वाब
सच करो इन्हें तो बोझ कम हो

बहुत दिन हुए मंदिर गए हुए
दोस्तों से मिलो जो वक़्त कम हो

हंसी से खरीदी कर रहे हैं आज
सौदा नहीं बुरा जो नोट कम हो

रात बर्फ का कालीन बिछा गयी
पांव रखें उस पर जो इमां कम हो

मौसम की पहली बर्फ

रात क्या कर गयी
सोते हुए शहर पर
बर्फ बिछा गयी

यह सफ़ेद नया सा है
पानी मौसमी इश्क में
पिसे मोती सा है

धूप मैला कर जाए
यह ऐसा निर्मल तोहफा
आँखों में बस जाए

रात क्या कर गयी
सोते हुए शहर पर
बर्फ बिछा गयी

October 25, 2010

एहसास

खुल के जीने का एहसास क्या था
तेरे साथ होने का एहसास क्या था

तुझे भूल कर अगर मैं खुश हूँ
तो तुझे पाने का एहसास क्या था

तेरे ख़त जलकर ख़त्म हो जाते
तो उन्हें पढने का एहसास क्या था

जो मयखाने में गुजरी शाम आवारा
तो तेरे इश्क का एहसास क्या था

ज़माने हँसे मुझ पर तो ग़म क्या
तेरे मुस्कुराने का एहसास क्या था

दबे हुए तकिये मे अब भी कुछ ख्वाब
उन्हें संग देखने का एहसास क्या था

October 23, 2010

छूटता सा जाता है

घडी घडी न पूछो तुम्हे कितना चाहते हैं
खुद पर यकीन कम होता सा जाता है

समय के साथ हमने तरक्की बहुत की
ऊपर से गिरने का डर बढता सा जाता है

ख्वाबों को रोकने की कोई तरकीब हो
चंचल मन सच से भागता सा जाता है

कोई पूछे तो क्या कहें की क्या पाया
जो भी पाया वो हर दम छूटता सा जाता है

October 22, 2010

पल पल ज़िन्दगी की गवाही खुद ही

यूँ अरमानो की तबाही खुद ही
पल पल ज़िन्दगी की गवाही खुद ही

तेरी वफादारी के झूठे किस्से
बैठे बैठे यारों को सुनाते खुद ही

सर्द हवाओं में हौसला इस तरह
तिल तिल कर जलते जाते खुद ही

मीलों चले कोई राहगीर न मिला
रुक रुक के रास्तों से बातें खुद ही

कौन कहे की वक़्त यूँ ही ज़ाया किया
पल पल का हिसाब रखते चले खुद ही

September 20, 2010

हौसला भी कमाल की चीज़ है

हौसला भी कमाल की चीज़ है...
अंधेरों मे चिराग हो जाता है
पतझड़ मैं पराग हो जाता है
पराजय मे उम्मीद हो जाता है
गैरों का मुरीद हो जाता है
दंगो मे विश्वास हो जाता है
विरानो मे निवास हो जाता है
दोस्तों मे पैमाना हो जाता है
इश्क मे अफसाना हो जाता है
मंदिर मे भगवान हो जाता है
हादसों मे इंसान हो जाता है
... हौसला भी कमाल की चीज़ है

August 15, 2010

कल की शाम

महफिलों में गुजरी कल की शाम
बड़ी तनहा गुजरी कल की शाम

हंस के बोला कई हसीनों से मैं
तुझे बहुत ढूंडा कल की शाम

ये इश्क का खेल भी अजीब है
येही सोचता रहा कल की शाम

आशिकों का यूँही बड़ा नाम है
बेसुध कई मिले कल की शाम

अकेलापन रंग बदलता है
सुर्ख लाल था कल की शाम

August 06, 2010

यादों में जियें कब तक

वीरान राहों पे सफ़र कब तक
खुद से अपनी बातें कब तक

नए मौके हर कदम पे बिछे
चूके मौकों पे रंज कब तक

बरस दिन-दिन कर गुज़र गया
बीते बरस की यादें कब तक

यादों की कीमत क्या आकें
यादों की तिजारत कब तक

मैं नशे मे क्या कुछ कह गया
मेरी बातों का गिला कब तक

वक़्त फिसल गया पता न चला
अब बिखरे लम्हे चुनें कब तक

July 01, 2010

हवा कहाँ चली

खुशबू समेटते हुए हवा कहाँ चली
मौसम बदलते हुए हवा कहाँ चली

ख़्वाबों का पिटारा पलकों पे उठाये
उम्मीदों के रास्ते हवा कहाँ चली

पहचाने से चेहरे यादों से चुनकर
राहों पे मिलाती हवा कहाँ चली

एक बच्चे की हंसी परचम बनाये
ग़म को मिटाती हवा कहाँ चली

घरोंदों में बैठे अरमानों के पंछी
उन्हें साथ उड़ाते हवा कहाँ चली

June 30, 2010

शाम के अंधेरों से क्या डरे

First Posted: 30 Jun, 2010 / Edited: 01 Jul, 2010

आगे बढ़ने के मौके कम मिले
मौकों पे हम बढ़ते कम मिले

कश्तियाँ रेत घिसती रह गयीं
पतवार उठाते बाज़ू कम मिले

कुछ चेहरों में नूर होता है
मेरे माथे पे तारे कम मिले

हमारी बेवफाई गिनी न गयी
हमे वफादार महबूब कम मिले

शाम के अंधेरों से क्या डरे
जिसे दिन में उजाले कम मिले

May 02, 2010

यूँ दोनों फिर बेपरवाह किसी रात हो न हो

एक बेहद खूबसूरत पुराने फ़िल्मी गीत से पहली लाइन लेकर आगे लिखने की कोशिश...

लग जा गले की फिर ये हसीं रात हो न हो
यूँ दोनों फिर बेपरवाह किसी रात हो न हो

इस बेखुदी का सिला है ये एहसास जो नए
लो ओढ़ लो मेरे जिस्म के लिबास ये नए
मौसम की ये आखिरी सर्द रात हो न हो
यूँ दोनों फिर बेपरवाह किसी रात हो न हो

आँखों से चूम लो हमे होठों से देख लो
सुन लो बदन हाथों से कोई ग़ज़ल कहो
मर्ज़ी की अपने कल ये कायनात हो न हो
यूँ दोनों फिर बेपरवाह किसी रात हो न हो

लग जा गले की फिर ये हसीं रात हो न हो
यूँ दोनों फिर बेपरवाह किसी रात हो न हो

April 13, 2010

ख्वाब देखने का मज़ा क्या रह जाए

ख्वाब देखने का मज़ा क्या रह जाए
ख्वाबों के सच होने की शर्त जो रखो

चेहरा उनका शर्म से गुलाबी हो जाए
चेहरे पे उनके हल्का हाथ जो रखो

हसीना हर कोई दिलरुबा हो सकती है
हसीनों के हर कदम पे दिल जो रखो

बात संवरकर अफसाना बन जाती है
बातें होठों से लेकर आँखों पे जो रखो

मुश्किल ये भी है की मैं झुकता नहीं
मुश्किलें तोड़ न दें ये अकड़ जो रखो

March 14, 2010

क्या पाते ?

जो अपनी किस्मत खुद लिख पाते
जो चाही क्या वो हर चीज़ पाते ?

आसमान को हाथों से नापा कई बार
पर होते तो क्या वो गहराई छु पाते ?

इज़हार की हर कोशिश अधूरी रही
वो पहल करते तो क्या कह पाते ?

दोस्तों के हज़ार एब हमे मालूम हैं
हम कह दें तो क्या वो सुन पाते ?

मौकापरस्त थे तो आज यहाँ हैं
इमानदार होते तो जाने क्या पाते ?

March 09, 2010

ये क्या कम है

ये क्या कम है
की अब तनहा नहीं होते कभी
तेरी यादें और हम हैं

मौसम चंचल है
रिमझिम बरस पड़ता है कभी
आखें इस वजह नम हैं

ख्वाब बंजारा है
यूँ ही आवारा भटकता है कभी
बस इसलिए नींदें कम हैं

वक़्त तो राही है
ये मेरे रोके से रुका है कभी
रुके हुए तो बस हम हैं