May 22, 2009

आँगन में लगा आम का पेड़ हरा है

मकान की दीवारें बेरंग हैं तो क्या
आँगन में लगा आम का पेड़ हरा है

एक चम्मच शक्कर गिरी मेज़ पर
उस तरफ़ चीटियों का कारवां चला है

मुमकिन ये भी है की वो बेवफा न हो
यही सोच आशिक दुनिया से चला है

पतझड़ मे फूल मुरझा गए तो क्या
ये चमन अब भी उम्मीदों से भरा है

सरकारें बाट रही हैं मुफ्त मे रोटियां
मजदूरों के औजारों में क्या धरा है

अकेला था तो चाहा कोई हाथ थाम ले
अब मेले में नयन-नक्श जांच रहा है

शहर की सड़कें

शहर की सड़कों पर
नियम से चलने का
अब फैशन न रहा

उपमा से उठकर
अब यथार्थ मे हैं
संघर्ष का मैदान
उन पर निश्चिंत हो,
गुनगुनाते चलने का
आराम न रहा

न जाने कितनो के
प्राण ले चुकीं ये
सड़क हो गई जैसे
रक्तरंजित रणभूमि
यहाँ मरते को देख
रुकने का समय न रहा

जानवरों, पंछियों को भी
अपने हमसफ़र से
यूँ विमुख, बेपरवाह
चलते, उड़ते नही देखा
रेखाओं से बंटी सड़क पे
दोस्ती का लेन न रहा

May 19, 2009

ख़्वाबों पे हक किसका है?

बोलो, खुशबु पे हक किसका है?
फूलों का, हवाओं या माली का?
जुल्फों मे सजा मोगरा क्या जाने

बोलो, ख़्वाबों पे हक किसका है?
रातों का, उम्मीदों या अपनों का?
बाहों मे लिपटा बदन क्या जाने

वीरान सड़कों पे हक किसका है?
हिन्दुओं, मुसलमानों, इसाईयों का?
दंगों मे उजडे जो घर, क्या जाने

अन्तिम साँसों पे हक किसका है?
संतोष का, थकान या मुक्ति का?
तिजोरी को तकते बेटे क्या जाने

May 18, 2009

ये ज़िन्दगी है, ख्वाब नही

ये ज़िन्दगी है, ख्वाब नही,
सुबह इसे कुछ और जीना पड़ेगा

मील के पत्थर अभी चुप हैं
राही को कुछ और भटकना पड़ेगा

मैं उनकी जुल्फों के गिरफ्त में हूँ
इनसे निकलूँ तो फिर सवेरा पड़ेगा

सफर ख़त्म हुआ तो मन उदास है
फिर किसी नई डगर चलना पड़ेगा