October 23, 2012

काफ़िर यूँ भी सोचता है कभी कभी

काफ़िर यूँ भी सोचता है कभी कभी
क्या हर्ज़ जो मस्जिद चलें कभी कभी 

यूँ तो बेसुध होने आते हैं तेरे दर साकी 
कर रहम शराब पानी हो जाये कभी कभी

सपने पिघल जाते हैं हलकी सी धुप में
सूरज देखे जो ख्वाब तो कैसे कभी कभी

शाखें मेज़ बन गयीं और पत्तियां किताबें
मौसम के हारों को पढ़ के देखो कभी कभी

सड़कों को मेरा वज़न क्या महसूस होगा
हम इन्ही की बाहों में गिरे हैं कभी कभी

जो रात के अंधेरों में छुप कर लिखे
उन शेरों को महफ़िल में पढो कभी कभी  

August 24, 2012

तो अच्छा

कुछ खतों के जवाब न आयें तो अच्छा
कुछ ख्वाब उठते बिसर जाएँ तो अच्छा

तुम से मिले तो बहुत सी उम्मीदें जगी
अगर तुम कुछ दूर साथ चलो तो अच्छा

शायद दुवाओं से भी फूल खिल जाएँ कंही
मांगे से यूं बहार मिल जाये तो अच्छा

वक़्त की पेचीदगी समझ भी गए तो क्या
ना समझे ही पार कर जाएँ तो अच्छा

दोस्तों से कहें कैसे की फिर आवारा हो चले
उन्हें खबर हमारी ज़माने से हो तो अच्छा

दर्द एक सोच है इसे महसूस न करो
ये दिल तक न पहुँचने पाए तो अच्छा 

April 17, 2012

दिल टूट सकता है

ख्वाबों में जियें या हकीकत में की हर सूरत में दिल टूट सकता है
ये सोच कर सीधे चले जाते हैं की हर मोड़ पर दिल टूट सकता है

ख्वाहिशों की शीशी जो खोल लें तो उसकी खुशबू फिर रुकेगी नहीं
यूँ फैल जाएगी हर जगह की दुनिया में रामा दिल टूट सकता है

उनके झूठे वादों पर इस कदर यकीन हो चला अब हमे
किसी शाम वो आ ही जाएँ हम से मिलने तो दिल टूट सकता है

बड़ी उम्मीदों से कश्ती लेकर उतरे हैं तूफानी मौजों पर हम
जो इस बार दरिया ने हमे नहीं अपनाया तो दिल टूट सकता है

हमारी खुशियों का क्या मोल अगर हमारे अपने अज़ीज़ खुश नहीं
उनकी आँखें ज़रा सी नम हो तो एक पल में दिल टूट सकता है

तुम्हारी देहलीज पर भी आकर बैठ जाएँ कुछ देर साकी
शहर में तो टूट ही चुका मैखाने में देखें क्या दिल टूट सकता है

February 12, 2012

दिन बीता सो बीता

क्यों जोड़ते हो शब्दों को
क्यों कहते हो कविता
किस काम का ये हिसाब
दिन बीता सो बीता

अनजाने में ही कभी
शब्दों में निकल आएगा
जो छुपा कर रखा है कंही
जग ज़ाहिर हो जायेगा

जिस ह्रदय में जितना मर्म
उतने उसके शब्द सरल
जितनी उपमा करे कवि
उतने उसके भाव तरल

क्यों लड़ते हो सपनो से
क्यों छिपाते हो नींदों में
दिन में वही तो खोजते हो
जो ढूंडा करते हो रातों में

January 16, 2012

हमसे साल नया फिर मिलने को है

उम्मीद को नया बहाना मिलने को है
हमसे साल नया फिर मिलने को है

दोस्त हमारे ये कह कर बुला लेते हैं
मैखाने में हम से कोई मिलने को है

उनकी बातें सुनने बादल भी चले आये
बेमौसम पानी की बूँदें मिलने को है

वो बूढ़ा आशिक पूरी शाम खामोश रहा
यकीनन कुछ नयी ग़ज़लें मिलने को है

सच न पूछो आडम्बर मेरा धूल जाएगा
दोस्त पुराना आज हमारा मिलने को है

जिन पेड़ों पर हमने अपने नाम खरोचे
शहर की सड़कें उन पेड़ों से मिलने को है