October 23, 2012

काफ़िर यूँ भी सोचता है कभी कभी

काफ़िर यूँ भी सोचता है कभी कभी
क्या हर्ज़ जो मस्जिद चलें कभी कभी 

यूँ तो बेसुध होने आते हैं तेरे दर साकी 
कर रहम शराब पानी हो जाये कभी कभी

सपने पिघल जाते हैं हलकी सी धुप में
सूरज देखे जो ख्वाब तो कैसे कभी कभी

शाखें मेज़ बन गयीं और पत्तियां किताबें
मौसम के हारों को पढ़ के देखो कभी कभी

सड़कों को मेरा वज़न क्या महसूस होगा
हम इन्ही की बाहों में गिरे हैं कभी कभी

जो रात के अंधेरों में छुप कर लिखे
उन शेरों को महफ़िल में पढो कभी कभी