हमारी बातों पर बनावट का इलज़ाम है
हमारी मोहब्बत पर फरेब का इलज़ाम है
बहारों का मौसम आया न इस तरफ
मुरझाये फूलों पर बेरहमी का इलज़ाम है
वो सितम भी करते हैं और नाराज़ भी वही
हम पर दर्द खामोशी से सहने का इलज़ाम है
जब हाथ न लगा तो उसकी बहुत आरज़ू रही
उसको छूने से अब हाथ जलने का इलज़ाम है
अब शराब से कितनी उम्मीद करे कोई
उस पर हर शाम दवा न बनने का इलज़ाम है
हम कहाँ कुछ कभी किसी मतलब से कहते हैं
हमारी बातों पर बेमतलब होने का इलज़ाम है
एक और शाम बेचैनी में गुज़र गयी
एक और शाम बेचैनी में जीने का इलज़ाम है
वो और थे जिनके दर्द दीवान हो गए
हम पर छुप छुप कर रोने का इलज़ाम है
हमारी मोहब्बत पर फरेब का इलज़ाम है
बहारों का मौसम आया न इस तरफ
मुरझाये फूलों पर बेरहमी का इलज़ाम है
वो सितम भी करते हैं और नाराज़ भी वही
हम पर दर्द खामोशी से सहने का इलज़ाम है
जब हाथ न लगा तो उसकी बहुत आरज़ू रही
उसको छूने से अब हाथ जलने का इलज़ाम है
अब शराब से कितनी उम्मीद करे कोई
उस पर हर शाम दवा न बनने का इलज़ाम है
हम कहाँ कुछ कभी किसी मतलब से कहते हैं
हमारी बातों पर बेमतलब होने का इलज़ाम है
एक और शाम बेचैनी में गुज़र गयी
एक और शाम बेचैनी में जीने का इलज़ाम है
वो और थे जिनके दर्द दीवान हो गए
हम पर छुप छुप कर रोने का इलज़ाम है
सुंदर भावपूर्ण कविता.
ReplyDeletedhanyawad rakesh ji
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