हवस के चश्मे से नित बदलता रंग दिखता है
जो रंगीन दिखता था वो अब बेरंग दिखता है
तस्वीर नहीं बताती सूरज उग रहा या ढल रहा
बदलते समय के साथ बदलता हाल दिखता है
इतनी दूर तक चले की मंज़िल बेमानी हो गयी
सफर में जो सीखा बस वही अनमोल दिखता है
मुड़कर जो देखूं तो गलतियाँ साफ़ दिखती हैं
उन्हें करनेवाला मैं नहीं कोई और ही दिखता है
बताते हैं खुले में निकलना अब सेहतमंद नहीं
अब घर के अंदर हर मौसम एक सा दिखता है
जिस्म पर पड़ी रंगीन धूल जब हटेगी तो देखना
भोपाली कल जैसा था आज वैसा ही दिखता है
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