July 02, 2010

हवा कहाँ चली

खुशबू समेटते हुए हवा कहाँ चली
मौसम बदलते हुए हवा कहाँ चली

ख़्वाबों का पिटारा पलकों पे उठाये
उम्मीदों के रास्ते हवा कहाँ चली

पहचाने से चेहरे यादों से चुनकर
राहों पे मिलाती हवा कहाँ चली

एक बच्चे की हंसी परचम बनाये
ग़म को मिटाती हवा कहाँ चली

घरोंदों में बैठे अरमानों के पंछी
उन्हें साथ उड़ाते हवा कहाँ चली

July 01, 2010

शाम के अंधेरों से क्या डरे

First Posted: 30 Jun, 2010 / Edited: 01 Jul, 2010

आगे बढ़ने के मौके कम मिले
मौकों पे हम बढ़ते कम मिले

कश्तियाँ रेत घिसती रह गयीं
पतवार उठाते बाज़ू कम मिले

कुछ चेहरों में नूर होता है
मेरे माथे पे तारे कम मिले

हमारी बेवफाई गिनी न गयी
हमे वफादार महबूब कम मिले

शाम के अंधेरों से क्या डरे
जिसे दिन में उजाले कम मिले