August 06, 2010

यादों में जियें कब तक

वीरान राहों पे सफ़र कब तक
खुद से अपनी बातें कब तक

नए मौके हर कदम पे बिछे
चूके मौकों पे रंज कब तक

बरस दिन-दिन कर गुज़र गया
बीते बरस की यादें कब तक

यादों की कीमत क्या आकें
यादों की तिजारत कब तक

मैं नशे मे क्या कुछ कह गया
मेरी बातों का गिला कब तक

वक़्त फिसल गया पता न चला
अब बिखरे लम्हे चुनें कब तक

2 comments:

  1. सुंदर अभिव्‍यक्ति .. प्रतीक्षा की भी एक सीमा होती है !!

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  2. धन्यवाद संगीता जी

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