March 08, 2009

सफर

[Incomplete version posted on: 8 March, 09
Completed the poem on: 5 July, 09]

सफर पे जो निकल पड़ा हूँ
देखें रास्ते कहाँ ले जाते हैं
मैं चलता हूँ इन पर या फिर
ये मुझ पर चल कर जाते हैं

मैं चुन रहा हूँ रास्तों को
या रास्ते चुन रहे हैं मुझे
जवाबों की खोज में निकलूँ
तो सवाल घेर लेते हैं मुझे

रास्तों को नहीं कोई लगाव
उन पर चलते मुसाफिरों से
बस उतनी ही आसक्ति उनको
जितनी कदमों को पत्थरों से

मिलते हैं जो हमसफ़र
वो मुस्कुराकर चले जाते हैं
सफर पे जो निकल पड़ा हूँ
देखें रास्ते कहाँ ले जाते हैं

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