शहर की सड़कों पर
नियम से चलने का
अब फैशन न रहा
उपमा से उठकर
अब यथार्थ मे हैं
संघर्ष का मैदान
उन पर निश्चिंत हो,
गुनगुनाते चलने का
आराम न रहा
न जाने कितनो के
प्राण ले चुकीं ये
सड़क हो गई जैसे
रक्तरंजित रणभूमि
यहाँ मरते को देख
रुकने का समय न रहा
जानवरों, पंछियों को भी
अपने हमसफ़र से
यूँ विमुख, बेपरवाह
चलते, उड़ते नही देखा
रेखाओं से बंटी सड़क पे
दोस्ती का लेन न रहा
जानवरों, पंछियों को भी
ReplyDeleteअपने हमसफ़र से
यूँ विमुख, बेपरवाह
चलते, उड़ते नही देखा
बहुत ही अच्छी रचना
मन को छू गई और जीवन की सच्चाइयों को बखूबी पाश किया है