May 22, 2009

शहर की सड़कें

शहर की सड़कों पर
नियम से चलने का
अब फैशन न रहा

उपमा से उठकर
अब यथार्थ मे हैं
संघर्ष का मैदान
उन पर निश्चिंत हो,
गुनगुनाते चलने का
आराम न रहा

न जाने कितनो के
प्राण ले चुकीं ये
सड़क हो गई जैसे
रक्तरंजित रणभूमि
यहाँ मरते को देख
रुकने का समय न रहा

जानवरों, पंछियों को भी
अपने हमसफ़र से
यूँ विमुख, बेपरवाह
चलते, उड़ते नही देखा
रेखाओं से बंटी सड़क पे
दोस्ती का लेन न रहा

1 comment:

  1. जानवरों, पंछियों को भी
    अपने हमसफ़र से
    यूँ विमुख, बेपरवाह
    चलते, उड़ते नही देखा

    बहुत ही अच्छी रचना
    मन को छू गई और जीवन की सच्चाइयों को बखूबी पाश किया है

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