शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार
ढलता सूरज जैसे उठकर
माथे पर आ बैठा हो
यूँ बिंदिया सजाती है
पसीने के मोतियों का ताज
बिना बगावत देती है उतार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार
झरने का पानी ज्यों टूटे
तार-तार बहते दिन भर
यूँ केश घने सुलझाती है
उनमे बांधे फूलों की वेणी
ओढ़ लेती मौसम की बहार
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार
जैसे महीनों धूप देखो
फिर भी न भूले रंग हरा
यूँ ही प्रिय का कोमल स्पर्श
ठहरा जीवंत कटिबंध में
उससे कमर देती है सवांर
शाम होते ही वृंदा करती है श्रृंगार
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