Rewriting one of my previous posts सफर बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल into a ghazal. The poem was little experimental in style. Venus Kesari had commented (very rightly so) that I'd have been better off not writing the complete verse in मतला .
यादों की बगिया सींचता रहा ऐ दिल
मौसम फिर बेरंग जाता रहा ऐ दिल
क़दमों को गिनकर सफर क्या कम होगा
वो तो बस उतना ही कटता रहा ऐ दिल
पुरानी हवेली की गिरती दीवारों के पीछे
पंछी नया घोसला बुनता रहा ऐ दिल
मौसमी वादों को निभाना तो चाहा बहुत
पर मौसम था की बदलता रहा ऐ दिल
दिन वो भी थे हौसला साथ रहता था
अब टूट गए, वक्त रोंद्ता रहा ऐ दिल
वो डरा हुआ लड़का सीधे चलता रहा
मैं जेब मे बटुआ ढूँढता रहा ऐ दिल
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